श्रीमद् भागवत ज्ञान गंगा कथा महोत्सव के चतुर्थ दिवस की सुंदर कथा : श्री राधाकुंज में आचार्य पीठ पर विराजित प.पू.आचार्य डाॅ. श्रीव्रजोत्सवजी महोदयश्री
(लोक जागृति समाचार) खरगोन
"प्रभु भक्ति ही सर्वोपरि हैं।"
चतुर्थ दिवस की कथा का श्रवणपान करवाते हुए परम पूज्य पाद गोस्वामी श्री 108 श्री व्रजोत्सवजी महोदयश्री ने अपनी अमृतमय वाणी से प्रहलाद चरित्र को श्री सुबोधिनी जी के माध्यम विस्तार से समझाया।
असुर और भक्तों में यह अंतर हैं कि, असुरों को वेदांत का ज्ञान होता है परंतु वे उसके अनुसार आचरण नहीं करते, जबकि भक्तों को भी वेदांत का ज्ञान होता हैं और वे उसी के अनुसार आचरण करते हैं।
श्री सुबोधिनी जी में बताया कि, हिरण्यकश्यप ने अपने भाई हिरणाक्ष्य की मृत्यु होने के बाद, हिरण्यकश्यप ने अपनी भाभी को यह समझाया कि, "संसार का नियम हैं कि, जो जन्म लेता हैं उसकी मृत्यु होती ही है." प्रतिशोध में आकर यह भी कहा कि, मैं अपने भाई की मृत्यु का बदला विष्णु से लूंगा, और हिरण्यकश्यप ने विष्णु से बदला लेने की इच्छा से घोर तप करके, ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके वरदान प्राप्त किया कि, "मैं ना तो दिन में मरू ना रात में, ना सुबह मरूं और ना शाम को, ना देवताओं से असुरों से, ना अस्त्र से ना ही शस्त्र से" इस प्रकार उसने अमर होने का वरदान प्राप्त किया, ब्रह्मा जी ने तथास्तु कहा।
इधर तप के दौरान हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु गर्भवती थी, महर्षि नारद ने असुर की पत्नि को गर्भ में ही ईश्वरीय भक्ति का ज्ञान दे दिया.
समय आने पर कयाधु ने एक सुन्दर सुशील पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम प्रहलाद रखा गया. प्रहलाद माता के गर्भ से ही ईश्वर भक्ति में लीन रहता था भक्त प्रहलाद धीरे-धीरे बड़े होने लगे, गुरुग्रह में उन्हें शिक्षा के लिए भेजा गया जहाँ पर आसुरी शिक्षा दी जा रही थी, परन्तु प्रहलाद ने आसुरी शक्ति को न मानते हुए,भक्ति को ही सर्वोपरि माना, राजा हिरणकश्यप ने अपने पुत्र प्रहलाद को कई बार मारने का प्रयत्न किया, लेकिन ईश्वरीय शक्ति से प्रहलाद हमेशा बचे रहें, एक दिन हिरण्यकश्यप की बहन होलीका आई जिसके पास एक ऐसी ओढ़नी थी जो अग्नि से नहीं जल सकती थी,
होलीका ने अपने भतीजे प्रहलाद को अग्नि में, अपनी गोद में बैठाकर, ईश्वरीय शक्ति से अपनी ओढ़नी भक्त प्रहलाद को औड़ाकर अग्नि प्रज्ज्वलित करवा दी, होलिका के मन में ऐसा भाव आया कि, प्रहलाद जैसे भक्त का इस संसार में होना आवश्यक हैं इसी कारण अपनी ओढ़नी प्रहलाद को औड़ाकर, खुद अग्नि में जल गई, इससे हमें यह सीख मिलती है कि, प्रभु भक्ति ही सर्वोपरि हैं।
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